मर्यादा पुरुषोतम रामचन्द्रजी, सीता मैया और अनुज लक्ष्मणजी के साथ चौदह साल का वनवास काट कर, वापस अयोध्या नगरी में प्रवेश कर रहे थे…. चहुंओर रामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी के गुण गान हों रहे थे और उन पर पुष्पों की वर्षा करी जा रही थी…
मर्यादा पुरुषोतम रामचन्द्रजी, सीता मैया और अनुज लक्ष्मणजी के साथ चौदह साल का वनवास काट कर, वापस अयोध्या नगरी में प्रवेश कर रहे थे…. चहुंओर रामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी के गुण गान हों रहे थे और उन पर पुष्पों की वर्षा करी जा रही थी…
इधर राजप्रासाद के झरोखे में से लक्ष्मणजी की भार्या उर्मिला सब नजारा देख रही थी… रह –रह कर उसके मन में अपने स्वामी, अंपने नाथ लक्ष्मणजी से चौदह वर्ष के बाद मिलने का उल्हास हो रहा था…
और दूसरी तरफ उसके मन में बार-बार मंथन चल रहा था… की चौदह बरस ज्येष्ठजी रामचन्द्रजी के साथ उनकी भार्या सीताजी साथ रहीं…. मेरे स्वामी लक्ष्मणजी के साथ उनकी बड़े भाई और भाभी थे….
मगर मेरे पास कौन था….मैं किस् से अपने मन की कहती…. मैं कैसे बताऊँ की मैंने अपने नाथ लक्ष्मणजी के बिना चौदह बरस कैसे काटे हैं…. मैं किसको बताऊँ की कैसे मैं राजप्रासाद के प्रांगन में व्याकुल हिरणी की माफिफ चक्कर काटा करती थी…
जब सेविकाएं मेरा श्रृंगार करती थीं, तो में अपने आप को कितना अधूरा महसूस करती थी की मेरे नाथ तो मेरे पास हैं ही नहीं, तो मैं इस श्रृंगार से किसको रिझाऊं…
कैसे मैं नित्-नित् दिन गिनती थी की कब ज्येष्ठजी रामचन्द्रजी के वनवास के चौदह बरस पूर्ण होयें और कब मैं अपने स्वामी का समीप्य्ह पाऊँ….
माता कैकई ने ज्येष्ठजी रामचन्द्रजी को चौदह बरस का वनवास देने को कहा था, मगर यह वनवास मैंने क्यों झेला…. मेरी क्या खता थी… चहुंओर ज्येष्ठजी रामचन्द्रजी, सीता मैया और मेरे नाथ के गुणगान हों रहे हैं…. मगर मेरा दर्द कौन जानता है….मैं किसको बताऊँ की अपने स्वामी के होते हुए भी मैं अधूरी थी…मैंने जो विरह और दर्द झेला है, उसे कौन जान पायेगा….!!
(यह प्रसंग और बात मेरी अपनी मौलिक है, किसी भी व्यक्ति विशेष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है)