बस यूंही ना जाने क्यों

दिल में एक दर्द है बयान कैसे करूँ, समझ नहीं आता… क्या करूँ ना करूँ…

ऐसा लगता है जिंदगी जैसे मनो थम सी गयी है, जीने की उमंग में मनो अटकल सी लग गयी है…

आता नहीं है, बारिश में कोई आनंद, ठंडी हवा भी लगती है बड़ी ही मंद-मंद…

चुस्की की चसक में आता नहीं है कोई रस, काफी का घूँट भी लगता है बड़ा ही नीरस…

बैठे-बैठे ना जाने क्यों दिल धड़क सा जाता है, पता नहीं चाकलेट खाने में क्यों बड़ा ही मज़ा आता है…

दिन छोटे लगते हैं और रातें लगती हैं बड़ी-बड़ी…

ना जाने क्यों चेक कर लेता हूँ अपना मोबाईल घडी-घडी…

कभी मन करता है लंबे सफर पे यूं ही घूम आने का…

जगजीत सिंह की ग़ज़लों को सुन कर उनमें डूब जाने का…

अच्छी नहीं लगती है जिंदगी की कोई खट-पट…

किसी भी काम से मन उकता जाता है अब झट-पट…

सुना था की मंजनू का भी यही हुआ था हाल, जब लैला-लैला कहते हुआ था बहाल…

कहीं मेरी हालत भी तो मजनू के जैसी नहीं, ऐ भाई मुझे भी ढूँढ दो एक लैला यहीं कहीं… 

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