एक गुनाह कर जाने को जी चाहता है,
तुमको बाँहों में ले-लेने को जी चाहता है,
एक बार फिर से जी जाने को जी चाहता है!
इस कदर कभी ना था मैं यों बेबस,
मगर तुमसे मिलने के बाद लगने लगा ना जाने क्यों बरबस,
की अब हर रस्मों रिवाज तोड़ जाने को जी चाहता है !
अच्छी नहीं लगती थी कभी यह सावन की घटा,
मगर तुम्हें पाने के बाद ना जाने ऐसा क्या घटा,
की अब हर बूँद बारिश की पी जाने को जी चाहता है!
चलती है चंचल पुरवाई जब भी कभी,
ऐसा लगता है मुझको, की बिलकुल पास हो तुम मेरे अभी,
इसी ख्याल से पुरवाई को आगोश में भर लेने को जी चाहता है!
जब भी आता है चाँद अपनी पूर्णिमा को साथ लेकर,
पूर्णिमा को देख कर ज्वारभाटे के साथ मचल उठता है सागर,
मेरे जज्बातों के ज्वारभाटे को भी तुम्हारा समिप्येह पाने को जी चाहता है!
दिल के तपते रेगिस्तान को मेरे,
प्यार के शीतल हवा के झोंके से तेरे,
सरोबार होने को जी चाहता है!!
क्या करूँ मैं इंसान हूँ, कोई भगवान तो नहीं,
नादान मन को तुम्हारा ख्याल आने से रोक सकता तो नहीं,
तुम्हारा ख्याल आते ही हर हद से गुजर जाने को जी चाहता है!
अब और क्या कहूँ, कैसे कहूँ, बहुत कुछ तुमसे कहना चाहता हूँ,
मगर एक बात मैं अपने दिल की तुमसे सच कहूँ,
हकीकत में तुमसे यूं ही हर वक्त कुछ ना कुछ कहते रहने को जी चाहता है..